भाग १
नेपाल का नया संविधान २०७२ अपने छठे वर्ष में है । नये संविधान ने देश में संघीय व्यवस्था तहत स्थानीय, प्रादेशिक और संघीय, तीन तह के सरकार की व्यवस्था की है । आम जनता को शासन की संरचना में परिवत्र्तन से बहुत सारी सकारात्मक अपेक्षाएँ थी लेकिन ऐसा कुछ होता दिख नहीं रहा है ।स्थानीय स्तर पर गरीबी, बेरोजगारी , हिंसा तथा सामाजिक असुरक्षा बढते जा रहा है । प्रदेश तथा संघ के स्तर पर भी राजनीतक , प्रशासनिक और आर्थिक व्यवस्थापन के क्षेत्र में चुनौतियाँ बढी हैं,घटी नहीं हैं ।
नये संविधान अन्तर्गत केन्द में संघीय सरकार और संसद की आज भी वही अवस्था है जो इस संविधान के लागू होने से पहले थी । संसद विघटन, सरकारं का समय से पहले गिरना , नयी सरकार का बनना , नयी सरकार बनने के दौरान पार्टियों में टुट फुट , भ्रष्टाचार की अहोरात्रि चर्चा परिचर्चा, वृहत से वृहत्तर आकार लेते हुए अख्तियार दुरुपयोग आयोग की भ्रष्टाचार नियन्त्रण के काम में पूर्ण असफलता जैसी पुरानी समस्याएँ आज भी यथावत हैं । अतः इस निष्कर्ष पर सहज ही पहुँचा जा सकता है कि केन्द्रीय स्तर पर राजनीतिक तथा आर्थिक रुपान्तरण करने में यह संविधान कामयाब नहीं हो पा रहा है । इसी बीच संघीय संविधान तहत प्रदेश एवं स्थानीय सरकार के भी निर्वाचन हए है । प्रदेश स्तर पर भी राजनीतिक, आर्थिक और प्रशासनिक स्तर पर वही समस्याएँ दिख रही है.जिनसे केन्द्र ग्रस्त है । अर्थात् संघीयता के मुख्य स्तम्भ प्रदेश में भी संविधान सकारात्मक शुरुवात करने में अब तक विफल रहा है ।
अब यदि स्थानीय तह के सरकार की बात करें तो वहाँ स्थिरता तो दिख रही है क्यों कि दलीय आधार पर अविश्वास का प्रस्ताव लाकर निर्वाचित अध्यक्ष और सदस्यों को हटाने की व्यवस्था संविधान में नहीं है । यह रोचक पक्ष है क्योंकि स्थानीय तह निर्वाचन भी निर्वाचन आयोग दलीय आधार पर करवाता है । निर्वाचन आयोग क्यो स्थानीय तह क्यो दलीय आधार पर करवाता है , यह स्पष्ट नहीं है ।
कहा जा रहा है कि भ्रष्टाचार स्थानीय तह में चरमोत्कर्ष पर है । गाँव घर में आम धारण यह है कि विकास बजट का तीन चौथाई भाग भ्रष्टाचार निगल जाता है और मात्र एक चौथाई हिस्सा जनता और विकास के काम में खर्च होता है । निश्चित रुप से स्थिति बहुत गम्भीर है और जिस अपेक्षा , आकांक्षा और प्रचार प्रसार के साथ स्वायत्त सथानीय सरकार का गठन हुआ , स्थानीय स्तर का जमीनी यथार्थ उससे कोसो दूर है । अख्तियार के कर्मचारी भ्रष्टाचार नियन्त्रण के नाम पर दोडते रहते हैं लेकिन भ्रष्टाचार भीमकाय आकार लेते जा रहा है । एैसा क्यो हो रहा है , इसका उत्तर शायद किसी के पास नहीं है ।
प्रत्येक घटना का कारण और प्रभाव होता है । प्रभाव दिख रहा है लेकिन कारण की जानकारी नहीं होनै की अवस्था में हम राजनीति कर रहे है. । प्रश्न उठता है कि स्वायत्त स्थानीय तह की सरकार समस्याओं का समाधान क्यों नहीं कर पा रही है और इसके लिए जिम्मेवार सिर्फ स्थानीय तह है या और भी शक्तियाँ और संयन्त्र जिम्मेवार है.। क्या स्थानीय तह वास्तव में भी स्वायत्त हैं या एक तरफ उनको स्वायत्त बनाया गया है और दूसरी तरफ उनसे उनकी स्वायत्तता छीन ली गयी है ।
इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के पहले स्वायत्तता का अर्थ और तब स्थानीय तह के लिए स्वायत्तता के मायने को समझना होगा । स्वायत्तता का शाब्दिक अर्थ होता है किसी भी प्रकार का निर्णय लेने की स्वतंत्रता लेकिन संविधान और कानुनी राज्य में स्वायत्तता का अर्थ होता है कानून के दायरे में रहकर अपना निर्णय लेने की स्वतंत्रता । स्थानीय तह इसी लिए स्वायत्त हैं क्यों कि स्थानीय तह के अधिकार क्षेत्र एवं शक्ति को संवैधानिक कानून के द्रवारा सुनिश्चित कर दिया गया है ।
इससे पहले की जन निर्वाचित स्थानीय सरकार्ें विकेन्द्रीकरण के सिद्धान्त के तहत स्थापित हुई थीं और अपने अधिकार एवं साधन श्रोत के लिए केन्द की सरकार पर निर्भर थीं । किसी भी निर्वाचित स्थानीय सरकार को भंग करने का अधिकार भी केन्द्रिय सरकार में नीहित था ।
ल्ेकिन अब वैसा नहीं है । स्थानीय सरकार को भंग करने का अधिकार संघीय सरकार को नहीं है । वैसै विशेष परिस्थितियों में प्रदेश सरकार विघटन का अधिकार संघीय सरकार को है । स्थानीय सरकार स्वयं कर भी उठाती है और संघ तथा प्रदेश को उनका हिस्सा देती है और अपना हिस्सा लेती है । स्थानीय सरकार को केन्द्र और प्रदेश से भी विकास बजट प्राप्त होता है । स्थानीय तह को संविधान और कानून की परिधि में रहते हुए अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कानुन बनाने का अधिकार भी संविधान ने दिया है । स्थानीय तह को न्यायिक अधिकार भी प्राप्त है ।
संविधान की धारा ५७ की उपधारा ४ और उपधारा ५ तथा संविधान की अनुसूची ८ और ९ में स्थानीय तह के अधिकारं उल्लेखित हैं ः
धारा ५७ उपधारा ४ कहता है ः
“स्थानीय तहको अधिकार अनुसूची ८ मा उल्लेखित विषयमा निहित रहने छ र त्यस्तो अधिकारको प्रयोग यो संविधान र गाउँ सभा वा नगर सभाले बनाएको कानून बमोजिम हुने छ ।”
धारा ५७ उपधारा ५ में उल्लेखित है ः
“संघ, प्रदेश र स्थानीय तहको साझा अधिकार अनुसूची ९मा उल्लेखित विषयमा नीहित रहने छ र त्यस्तो अधिकारको प्रयोग यो संविधान र संघीय कानून , प्रदेश कानून र गाँउ सभा वा नगर सभाले बनाएको कानून बमोजिम हुने छ ।”
इसीलिए स्थानीय तह कानूनतः स्वायत्त ही नही है बल्कि धारा ५७ की उपधारा ५ के अनुसार स्थानीय तह की साझेदारी देश की सार्वभौम सत्ता में भी हैं ।
लेकिन क्या स्थानीय सरकार सही मायनो में स्वायत्त और स्वतंत्र है ? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हमलोगों को उन सभी संरचनाओं की पहचान एवं जाँच परख करनी होगी जो कानूनतः स्थानीय तह को केन्द्र अथवा प्रदेश से जोडते हैं ।
साथ ही हमें यह भी जानना होगा कि क्या कुछ ऐसी संरचनाए अथवा अभ्यास तो क्रियाशील नहीं हैं जो कानून से बाहर जाकर जनता और स्थानीय तह की स्वायत्तता और सार्वभौम सत्ता को सीमित करते हैं ?
यह जानना स्थानीय तह की प्रभावकारिता को समझने के लिए आवश्यक है । अगर स्थानीय तह स्वायत्त और अधिकार सम्पन्न है तो स्थानीय स्तर पर ं समुचित विकास क्यों नहीं हो रहा है, गरीबी क्योंं नहीं घट रही है; गरीबो, दलितों एवं महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की घटनाएँ क्यो बढती जा रही हैं; अख्तियार दुरुपयोग अनुसंधान आयोग स्थानीय तह के भ्रष्टाचार को क्यों नहीं नियन्त्रण कर पा रहा है ? बेरोजगारी क्यों नहीं घट रही है ?
क्या स्थानीय तह जनता के नियन्त्रण में है और क्या स्थानीय तह स्थानीय जनता प्रति उत्तरदायी है और अगर है तो उसका मापन कैसे किया जा सकता है ?
सरिता गिरी
श्रावण १४ , २०७८
जुलाई २९, २०२१
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