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सुगौली संधि और तराई के मूलबासिंदा

 सुगौली संधि और तराई के मूलबासिंदा

सुगौली संधि फिर से चर्चा में है । वत्र्तमान प्रधानमंत्री ओली ने नेपाल के नये नक्शे के मुद्दे को फिर से उठाते हुए १८१६ की सुगौली संधि का एक बार फिर से जिक्र किया है ।  लेकिन इस बारे बोल  सिर्फ प्रधानमंत्री रहे है। इस संधि से सरोकार रखने वाले और भी हैं लेकिन सब मौन हैं । इतिहास की कोई भी बडी घटना बहुताेंं के सरोकार का विषय होता है लेकिन घटना के बाद इतिहास का लेखन जिस प्रकार से होता है, वह बहुत सारी बातों कोे ओझल में धकेल देता है और और बहुत सारे सरोकारं  धीरे धीरे विस्मृति के आवरण में आच्छादित हो जाते है । नेपाल के इतिहास में सुगौली संधि की घटना भी एक ऐसी ही घटना है । 

वत्र्तमान प्रधानमंत्री ओली सुगौली संधि का जिक्र तो कर रहे हैं लेकिन सरकार से यदि कोई संधि की प्रति मांगे तो जबाब मिलता है कि संधि का दस्तावेज  लापता है । संसद को भी सरकार की तरफ से यही जबाब दिया जाता है । यह एक अजीबोगरीब अवस्था है।  जिस संधि के आधार पर सरकार ने नेपाल का नया नक्शा संसद से पारित करा लिया है , उस सधि  के लापता होने की बात कहाँ तक सच है, यह सरकार और नागरिक समाज जाने और समझे । 

लगभग २०९ सालं पहले हुई संधि के दस्तावेज को सरकार लापता कह कर उसको सक्रिय नहीं रह सकती है। यह हरेक कोण से अनैतिक है । वह भी ऐसी परिस्थितियों में जब बहुत सारी किताबों में विद्वान लेखकों ने सुगोली संधि के दस्तावेजं को अनुसूची खंड में रखकर प्रकाशित कर दिया है । ऐसी ही एक पुस्तक है द्यचष्तष्कज क्ष्लमष्ब च्भबिबतष्यलक धष्तज प्ष्लनमयm या ल्भउब ि। असद हुसैन इसके लेखक हैं । सुगौली संधि के दो दस्तावेज हैं । एक संधि की मूल प्रति है और एक पूरक प्रति है  ।  असद हुसैन की किताब के पृष्ठ ३८६ ( ३८७ में पूरक संधि अनुसूची खंड में उपलब्ध है ।

 पिछले समय जब सरकार ने संसद में नया चुच्चे नक्शा पेश किया था तब एक सांसद के रुप में मैने जो संशोधन प्रस्ताव  दर्ज कराया था उसका मकसद सिर्फ इतना ही था कि  उक्त नक्शे की संधि श्रोत को भी सरकार संशोधन प्रस्ताव के कैफियत खंड में उल्लेख करे और यदि संधि सरकार  पुनर्जिवित करना चाहती है तो ऐसा वह समग्रता में करे । अर्थात् संधि की हरेक धारा पर बहस की जाए और दबे हुए सरोकारों पर भी प्रकाश डाला जाए ।  यह अलग बात है कि संसद में नये नक्शे के बारे में  हुए प्रारम्भिक छलफल में कमो बेश सभी माननीय सदस्यों ने नक्शे के श्रोत के रुप में सुगौली संधि का ही जिक्र किया था । साथ ही प्रारम्भिक छलफल के दूसरे दिन ही सरकार ने नये नक्शे के समर्थन में प्रमाण जुटाने के लिए एक नौ सदस्यीय समिति गठन करने के लिर्णय लिया था और उस समिति की कुल अवधि ३ महीने की थी लेकिन समिति के प्रतिवेदन को संसद तक में छलफल में नहीं लाया गया है । 

इससे स्पष्ट होता है कि  विषय संवेदनशील है जिस कारण  सरकार के लेखन और वचन में बडा अंतर है ।  लेकिन सुगौली संधि का  विषय सिर्फ नये नक्शे को लेकर संवेदनशील नहीं है । यह तराई के मूल बासियों के लिए भी बहुत  संवेदनशील विषय है। सुगौली संधि के दो दस्तावेज हैं ,  एक मूल संधि है और दूसरा  मूल संधि की पुरक संधि है और दोनो पर हस्ताक्षर अलग अलग तिथि में किया गया है ।   मूल संधि में नेपाल को तराई की जमीन से हाथ धोना पडा था लेकिन दरबार के भारदारो और सेना के रख रखाव के लिए अंग्रेजो ने सलाना दो लाख रुपया नेपाल दरबार को देने की सहमति की थी ।  दरबार इतने से संतुष्ट नर्ही था । तत्कालीन महाराजा का यह कहना था  कि यदि मेरे पास समतल भूमि से आने वाली आय नहीं रहेगी तो मेरा राज्य कैसे चलेगा । पूरक संधि के मार्फत नेपाल को अंग्रेजों ने तराई की समतल भूमि का एक हिस्सा दिया । अर्थात् तराई का भूभाग पूरक संंधि मार्फत  नेपाल अधिराज्य का एक समानान्तर पट्टी जैसा हिस्सा दिया जो हिमाली पहाडों के समानान्तर अवस्थित है हुआ लेकिन पूरक संधि की धारा ७ में तराइ के मूल वासियो के बारे उल्लेख किया गया है । में जिस प्रकार से उल्लेख किया गया है , वह नेपाल में तराई की  जनता के साथ आज २०० वर्षों से ज्यादा समय से जिस प्रकार से विभेद हो रहा है , उसको  समझने के लिए संधि  एक बहुत ही महत्वपूर्ण दस्तावेज है । इसलिए सुगौली संधि का विषय  तराई मूल के वासिंदोें और राजनीतिककर्मी के लिए भी बहुत संवेदन शील विषय है । मैंने इस विषय को उठाने की जुर्रत की तो मुझे संसद से निकलना पडा । मेरे संसद से बहिर्गमन के बाद एक मात्र नेता स्वर्गीय प्रदीप गिरी ने स्वीकार किया था कि सुगौली संधि के बाद नेपाल में मधेशियो के साथ विभेद का क्रम शुरु हुआ है ।  

तराई के मूल बासियों की संतति  आज भी स्वयं को  नेपाल में शोषित और पीडित समुदाय  मानती हैं । लेकिन उनको इसका ऐतिहासिक की जानकारी नहीं है या फिर जो जानते हैं वे खुलकर सामने नहीं आना चाहते हैं । संयुक्त राष्ट्र संघ की आदिवासी शब्द की परिभाषा अनुसार तराई के मूल वासी मूलतः  मधेशी, मुस्लिम, दलित, थारु और कोचिला क्षेत्र के मूल बासी हैं ।  

पुरक संधि की धारा ७ कहती हैः

Moreover, the Rajah of Nipal agrees to refrain from prosecution of any inhabitants of the Terai , after its revertance to his rule , on account of having favored the cause of British Government during the war and should any of those person, excepting the cultivators of the soil, be desirous of quitting their , and of returning within the company’s territory, he shall not be liable to hindrance. 

यहाँ दो मुख्य बातें हैं ः 

१.नेपाल के राजा तराईबासियों को सुगौली युद्ध में अंग्रजी सरकार का पक्ष लेकर लडने के कारण  दंडित नहीं करेंगे ।       

२. अगर तराई के मूल बासी इस्ट इंडिया कम्पनी के भूभाग में वापस आना चाहेंगे तो उनको किसी प्रकार से नेपाल राज्य  बाधित नहीं करेगा । लेकिन किसानों को वापस जाने की छुट नहीं दी गयी थी । अर्थात्  इस संधि के बाद नेपाल की तराई के किसान बंंधुवा खेतीहर बनकर रह गये थे । 

 इससे स्पष्ट होता है कि ब्रिटिश  सरकार ने नेपाल के साथ शांति कायम कर भारत मे ंअपने साम्राज्य का  विस्तार करने के लिए नेपाल अधिराज्य के साथ सहमति कर तराई कें किसानों को उनके खेतों  के साथ बंधुवा खेतिहर मजदूर के रुप में नेपाल के जिम्मा लगाया था । बित्र्ता प्रथा इन्हीं खेतिहर मजदूरो के खुन पसीने पर टिका था। 

अब प्रश्न यह उठता है कि १८१५ के ं मूल सुगौली संधि के बाद १८१६ में पूरक सुगोली संधि क्यों करनी पडी । सुगौली युद्ध के बाद हुए मूल सुगौली संधि के अनुसार तराई की सम्पूर्ण भूमि पर इस्ट इंडिाया कम्पनी का स्वामित्व स्थापित हो चुका था । इस युद्ध में तराइ बासियों ने अंग्रेजों का साथ दिया था ।  लेकिन नेपाल के महाराजा के बार बार अनुरोध करने पर जब अंग्रेजों ने तराई का कुछ भूभाग नेपाल को जिम्मा लगा कर नेपाल के साथ शांति कायम करने का मन बना लिया था, तब सीमावत्र्ती तराई के जमींदार और किसान आंदोलन पर उतर आए । उन्होने  जिस देश के साथ युद्ध किया था उस देश की प्रजा होने से इन्कार कर दिया था क्यों कि उनको डर था कि उनके साथ  विभेद होगा और उनको  प्रताडित भी किया जाएगा । तराई के जमींदारों और किसानों के आन्दोलन के कारण अंग्रेजों को नेपाल के महाराजा के साथ पूरक सुगौली संधि करना पडा । इस घटना क्रम से स्पष्ट होता है कि  तराई आन्दोलन की शुरुवात सन् १८१५  से हुई है और यह आन्दोलन दक्षिण एशिया के प्राचीनतम राजनीतिक आन्दोलनों मे से एक है । पूरक संधि में नेपाल के राजा को प्रत्येक वर्ष दो लाख रुपया सलाना  देने की सहमति को खारिज कर दिया गया था और यह बात पूरक संधि की धारा ६ में उल्लेखित है । ब्रिटिश साम्राज्य  भारत की भूमि से दूर कई देशों में भारत की जनता को मजदूर बनाकर ले गये थे लेकिन नेपाल का मामला थोडा अलग है। यहाँ जमीन और बंधुवा किसान दोनों आए । २००७ साल के परिवत्र्तन के बाद जब तक भूमि सम्बन्धी कानून और नागरिकता कानून  नहीं आया था , तबतक नेपाल तराई में किसानो की अवस्था कैसी थी, यह अपने आप में अनुसंधान के लिए बहुत रोचक विषय बस्तु है । 

इतिहास और भूगोल के साथ के अपने विशेष सम्बन्ध को समझ कर उसे आधार बनाए बिना मुक्ति और अधिकार का कोई भी आन्दोलन सफल नहीं हो सकता है। इसीलिए दार्शनिकों ने कहा है कि इतिहास सबसे बडा शिक्षक है ।

सरिता गिरी 

जुलाई ३०, २०२४

१५ सावन , २०८१


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