Skip to main content

नेपाल में मधेशी दलों के एकीकरण का विषय


(अद्र्ध प्रजातंत्र के लिए संवैधानिक विकास को अवरुद्ध करने का दूसरा आसान तरीका दलो में अस्थिरता और टुट फुट बनाए रखना है । शासक वर्ग यह  बखूबी समझता है कि दलीय राजनीति में दलों को नियंत्रित रखने या आवश्यकता पडने पर  उनके माध्यम से राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बनाए रखने के लिए राजनीतिक दल सम्बन्धी कानून और निर्वाचन आयोग जैसी संस्थाओं पर नियन्त्रण कितना आवश्यक हैं ।
आज देश में  राजनीतिक अस्थिरता का दोषी ं संसदीय पद्धति को  ठहराया जा रहा है । अस्थिरता खत्म करने के लिए राष्ट्रपतिय पद्धति को बहाल करने की बातें हो रहीं हैं लेकिन अस्थिरता के प्रमुख कारक तत्व राजनीतक दल एवं निर्वाचन आयोग सम्बन्धी कानून के तरफ कि का ध्यान नही जा रहा है। यह निश्चित है कि संसदीय पद्धति के स्थान पर राष्ट्रपतिय अथवा मिश्रित पद्धति की बहाली होने पर गणतांत्रिक नेपाल में एक तरफ फिर से अद्र्ध लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना होगी तो दूसरी तरफ दल एवं निर्वाचन सम्बन्धी हाल ही के कानूनों की निरन्तरता रहने पर राजनीतिक दलों में टूट फूट का क्रम भी जारी रहेगा । तब भी  मधेशवादी लगायत अन्य राजनीतिक दल सुशासन और परिवत्र्तन के नहीं बल्कि सत्ता के बनते और बिगडते खेल के ही संवाहक बने रहेंगे । )

आज देश और मधेश एक अत्यन्त नाजुक मोड पर खडा है । देश में संविधान नहीं है तो  मधेश में  संघीय संविधान जारी नही होने के कारण मधेशी ठगे हुए राही के समान खडे हंै । संविधान जारी न होने पर मधेशी मोर्चा सम्मिलित सरकार ने नये संविधान सभा के चुनाव की तिथि की घोषणा कर दी लेकिन निर्धारित तिथि पर चुनाव नहीं होने जा रहे हंै । मधेशी मोर्चा के प्रमुख घटक दल ने मधेशी दलों के बीच संविधान सभा के निर्वाचन के मुद्दे को लेकर दलों के बीच एकता की चर्चा शुरु करा दी है । मोर्चा के बाहर रहे मधेश केन्द्रित दलं भी अपनी तरफ से  चर्चा को आगे बढा रहे हैं लेकिन एकीकरण के परिवेश, कारणों तथा औचित्य के बारे में बहस अभी प्रारम्भ ही हुआ है ।
संविधान सभा क्यो संविधान जारी नहीं कर सका, इस बारे मे निश्चित जानकारी किसी को नही है । मधेशी मोर्चा के कहे अनुसार संघीयता के कारण संविधान जारी नहीं हुआ और इसमें पर्याप्त सत्यता भी है । लेकिन यदि यही एक मात्र कारण है तो यह निश्चित नहीं है कि अगला निर्वाचित संविधान सभा संघीय संविधान दे पाएगा । जब जन आंदोलन और मधेश आंदोलन के मैंडेट प्राप्त चार प्रमुख राजनीतिक शक्तियाँ संविधान सभा में प्रचंड बहुमत  के बावजूद भी नये संविधान के लिए सहमति नही जुटा सके तो नये निर्वाचन मेें जात और जाति के नाम पर अन्य नये और छोटे दल चुनाव में अवतरित होंगे और तब  और भी विखंडित मतों सहित का संविधान सभा इस देश को संघीय संविधान दे सकेगा, इस बात पर यकीन करने का कोई आधार नही है । इस अवस्था में मधेशी दलों के एकीकरण की चर्चा ने आज की अवस्था के लिए जिम्मेवार  अन्य मुद्दों पर भी बहस को आवश्यक बना दिया है ।

अद्र्ध प्रजातंत्र से पूर्ण प्रजातंत्र की ओर 

२०६२–०६३ साल के जन  आन्दोलन में गिरिजा बाबु ने एक नये शब्द को नेपाल की राजनीति  में  प्रवेश कराया था और वह शब्द था पूर्ण प्रजातन्त्र ।  २००७ साल से नेपाल में प्रजातान्त्रिक आन्दोलन का नेतृत्व करने वाली पार्टी ने जब पूर्ण प्रजातंत्र की मांग रखी तो उसने यह भी स्वीकार कर लिया कि देश में पहले पूर्ण प्रजातंत्र कभी था ही नहीं । नेपाल सदभावना पार्टी की धरातल से तो मैंने  इसको पहले ही महसूस कर लिया था कि अद्र्ध सामन्ती,अद्र्ध औपनिवेशिक नेपाल मे प्रजातंत्र भी अद्र्ध ही है । लेकिन गिरिजा बाबु की स्वीकारोक्ति का महत्व कुछ और ही था । लेकिन यदि माओवादी जनयुद्ध के दौरान  माओवादियो के विरुद्ध सेना परिचालन के लिए तत्कालीन राजा से गिरिजा बाबु को सहयोग प्राप्त हुआ होता तो गिरिजा बाबु को भी अद्र्ध प्रजातांत्रिक व्यवस्था के बारे में कोई खास शिकायत नहीं रही होती । अद्र्ध प्रजातन्त्र से प्रजातंत्रवादियों, साम्यवादियों  एवं राजतन्त्रवादियों को कोई आपत्ति नही थी क्यों कि पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल के अत्यन्त प्राचीन इतिहास को दफना कर १३ वीं शताब्दी के बाद मात्र शाह वंशीयों एवं उनके भारदारियों के लिए जिस नेपाल के निर्माण की आधारशीला रखी थी, उसको निरन्तरता देने और सुदृढ करने के लिए २००७ साल के बाद नेपाली कांग्रेस सहित अन्य सभी साम्यवादी और राजतंत्रवादी दल आज भी एकमत हैं । 

२०४६ साल से स्वर्गीय गजेन्द्र बाबु के नेतृत्व में स्थापित नेपाल सदभावना पार्टी ही एक अपवाद दल के रुप में कायम रही । नेपाल के प्राचीन इतिहास के आधार पर संघीयता के माध्यम से नये नेपाल के निर्माण के आंदोलन की आधारशीला  इस दल ने रखी । गणतंत्र नेपाल के निर्माण का आंदोलन प्रारम्भ करने वाले मधेशी मूल के नेता स्वर्गीय रामराजा प्रसाद सिंह ने भी तेरहवी शताब्दी से पूर्व के नेपाल के इतिहास के आधार पर ही अपने गणतान्त्रिक आंदोलन को बढाया था । अर्थात नेपाली काँग्रेस के लिए पूर्ण प्रजातन्त्रका अर्थ सेना पर नियन्त्रण था तो मधेशी नेताओं ने इस बारे में  अलग दृष्टिकोण को आगे बढाया और उसका परिणाम वर्ष २०६२/ ६३ में आकर दिखा ।

२००७ साल के बाद राजतंत्र और अन्य दलों के बीच संघर्ष मूलतः सत्ता साझेदारी या सत्ता नियन्त्रण के विषय को  लेकर ही रहा है । २००७ साल की का्रंति का लक्ष्य राणाओं को हटा कर राजा के साथ सत्ता साझेदारी की ही थी । संवैधानिक राजतंत्र, संसदीय प्रजातंत्र, प्रजातांत्रिक समाजवाद जैसी अवधारणाओं का विकास एवं प्रवेश क्रमिक रुप से बाद में हुआ है ।  इस बीच नेपाली कांग्रेस और राजा के बीच सेना के नियन्त्रण के विषय को लेकर रहा द्वन्द पुराना है ।
 २०४६ साल के बाद भी राजा के तहत सेना रहने के कारण माओवादी, बहुदलीय जनवादी तथा संसदवादी दलो में सघर्ष इस बात को लेकर था कि राजा के साथ किसके सम्बन्ध सबसे ज्यादा घनिष्ठ हाें । माओवादियों का अब जो इतिहास सामने आ रहा है उससे स्पष्ट होता है कि यदि राजा वीरेन्द्र  की हत्या नही हुई होती तो इस देश में राजा, साम्यवादी एवं राजतन्त्रवादी के गठबन्धन के नेतृत्व में निर्देशित अर्थात् अद्र्ध प्रजातान्त्रिक  व्यवस्था ही बहाल होती ।

अद्र्ध प्रजातांत्रिक व्यवस्था के लक्षण

नेपाल के संदर्भ में अद्र्ध प्रजातांत्रिक व्यवस्था आखिर है क्या ? क्या यह सिर्फ सेना के उपर सत्ताधारियों के नियंत्रण से सम्बन्धित है या उससे भी कुछ ज्यादा है । मैने नेपाल की  अद्र्ध प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के अन्य लक्षणो को जितना जाना और समझा है, उसके मूल में यही है कि  शासन करने के लिए संविधान एवं कानून द्वारा निर्धारित संस्थाओं को कैसे नियन्त्रण में रखा जाये ताकि शाह वंश के एकीकरण के द्वारा स्थापित शासक वर्ग का शासन और उनके हित सुरक्षित रहे ।

राजतन्त्र के दौरान राजा को राज्य माना जाता था तो अद्र्ध प्रजातन्त्र के दौरान राजनीतिक दलों ने स्वयं को राज्य मानना शुरु कर दिया । २०४६ साल के पहले के पंचायत तंत्र और बाद के शासन तंत्र के चारित्रिक लक्षणें में कोई खास फरक नहीं रहा । २०४६ साल के बाद शासक वर्ग का दायरा तो बढा लेकिन एक तरफ दलों और राजा के बीच सत्ता संघर्ष यथावत रहा तो दूसरी तरफ संसदवादी और संसदवादी हुए नये दलों के बीच की अर्थहीन प्रतिस्पद्र्धा के कारण  सभी संस्थाओं का और भी तीव्र दलीयकरण और राजनीतिकीकरण हुआ ।  कानून तथा संविधान क्रमशः कमजोर होते गये क्योकि त्रिपक्षीय संघर्ष ने  संवैधानिक संरचनाओं को कानून और संविधान के अनुसार काम करने नही दिया । राजनीतिक दल विभाजित होते रहे और परिस्थितियाँ ऐसी बनती गयीं कि छोटे से छोटा विवाद भी राजनीतिक रुप ग्रहण करते गया । माओवादियों के सशस्त्र संघर्ष ने कमजोर व्यवस्था को और भी कमजोर बना दिया और संविधान अंततोगत्वा  विफल हो गया ।

बार–बार संविधान का विफल होना और राजनीतिक अस्थिरता का बना रहना भी अद्र्ध प्रजातान्त्रिक व्यवस्था का एक अहम लक्षण है । लेकिन इससे शासक वर्ग ने सीखा भी है । आंतरिक सहमति अनुसार संविधान विफल कराना इनके लिए कोई बडी बात नहीं है  क्योंकि इस बात को ये बखूबी जानते हैं ंकि  संविधान विफल होने पर ही यथास्थितिवाद  कायम रहता है । अर्थात् संविधानों के बनने और  विफल होने से अद्र्ध प्रजातांत्रिक व्यवस्था कायम रह शासक वर्ग का हित सुरक्षित रहने की अवस्था मे शासक वर्ग उसके लिए भी तत्पर रहता है। नेपाल मे अद्र्ध प्रजातान्त्रिक व्यवस्था का एक अहम लक्षण यह भी है और संविधान सभा की विफलता का मुख्य कारण भी यही है ।  

अद्र्ध प्रजातंत्र के लिए संवैधानिक विकास को अवरुद्ध करने का दूसरा आसान तरीका दलो में अस्थिरता और टुट फुट बनाए रखना है । शासक वर्ग यह  बखूबी समझता है कि दलीय राजनीति में दलों को नियंत्रित रखने या आवश्यकता पडने पर  उनके माध्यम से राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बनाए रखने के लिए राजनीतिक दल सम्बन्धी कानून और निर्वाचन आयोग जैसी संस्थाओं पर नियन्त्रण कितना आवश्यक हैं ।
आज देश में  राजनीतिक अस्थिरता का दोषी ं संसदीय पद्धति को  ठहराया जा रहा है । अस्थिरता खत्म करने के लिए राष्ट्रपतिय पद्धति को बहाल करने की बातें हो रहीं हैं लेकिन अस्थिरता के प्रमुख कारक तत्व राजनीतक दल एवं निर्वाचन आयोग सम्बन्धी कानून के तरफ कि का ध्यान नही जा रहा है। यह निश्चित है कि संसदीय पद्धति के स्थान पर राष्ट्रपतिय अथवा मिश्रित पद्धति की बहाली होने पर गणतांत्रिक नेपाल में एक तरफ फिर से अद्र्ध लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना होगी तो दूसरी तरफ दल एवं निर्वाचन सम्बन्धी हाल ही के कानूनों की निरन्तरता रहने पर राजनीतिक दलों में टूट फूट का क्रम भी जारी रहेगा । तब भी  मधेशवादी लगायत अन्य राजनीतिक दल सुशासन और परिवत्र्तन के नहीं बल्कि सत्ता के बनते और बिगडते खेल के ही संवाहक बने रहेंगे । 

इन परिस्थितियों में मधेशी दलों के बीच एकीकरण की संभावनाओं एवं चुनौतियों के बारे में प्रारम्भ हुई बहस सार्थक तो  है लेकिन सिर्फ संविधान सभा चुनाव के दृष्टिकोण से यह उपयुक्त नहीं है । आवश्यकता इस बात की है कि मधेश केन्द्रित दलों में बार–बार विभाजन  क्यों होते रहा है, इस पर भी विचार किया जाये क्योकि आने वाले दिनों मे लोकतंत्र और संघीय नेपाल को बचाने की जिम्मेवारी मधेशी दलों की ही है । मधेशी दल बार–बार सत्ता के लिए फूटते  ह,ै इस बारे में तो आम सहमति है लेकिन इतना कारण ही पर्याप्त नहीं है ।
२०६२ – ६३ के अत्यन्त रोमांचकारी  मधेश आन्दोलन की ताकत पर  मधेशी दल एक बडी ताकत बने र्हैं । नेपाल की राजनीति में मधेश एक सम्भावित शक्ति के रुप में हमेशा से रहा है । इसलिए पहले जब तीन से पाँच सीट जितने वाले सद्भावना को सरकार में शामिल कराया जाता था तो  आन्दोलन की शक्ति से उभरे मधेश केन्द्रीत दलोको सरकार में शामिल नही कराने का प्रश्न ही नहीं उठता है । काँग्रेस , एमाले तथा माओवादी के पास दो तिहाई मत होने के बावजूद भी मधेश केन्द्रित दलों कों हरेक सरकार में शामिल कराया गया । होते – होते संयुक्त लोकतान्त्रिक  मधेशी मोर्चा के बाहर रह रहे मधेश केन्द्रित दल भी सरकार में शामिल  हुए । लेकिन संघीय संविधान  जारी नही हुआ । बिना संविधान के देश एक बार फिर अद्र्ध प्रजातांत्रिक ही बनकर रह गया है ।
इस परिप्रेक्ष्य  में  मधेशी दलो के एकीकरण के बारे में बहस शुरु हुई है । आम मधेशी की भावना भी इस पक्ष में है और संस्थागत परिवत्र्तन के लिए बडी और संगठित राजनीतिक दल का निर्माण भी आवश्यक हंै।   लेकिन  सिर्फ चुनावी एकीकरण से संगठित शक्तिका निर्माण होना सम्भव नहीं है । राजनीतिक जडता को समाप्त करने के बारेमे  मधेशी दलों के बीच साझा दृष्टिकोण अभी तक बन नही सका है । संवैधानिक और राजनीतिक अवरुद्धता की अवस्था सें निकास के बारे में जबतक मधेश केन्द्रित दलों के बीच एक आम सहमति नहीं बनती है तबतक दलाें के बीच एकीकरण प्रकिया का आगे बढना सहज नहीं दिखता है । संविधान सभा के विघटन के पश्चात् नेपाल सद्भावना आनन्दी दल ही एकमात्र दल है जो संविधान सभा की पुनस्र्थापना कर वहाँ से संविधान सभा जारी कराने के पक्ष में खडी है । सर्वोच्च अदालत में संसद एवं संविधान सभा की पुनस्र्थापना के लिए दल की तरफ रीट याचिका भी दर्ज कराया गया है । पाँच महीनों के बाद अब काँग्रेस,  माओवादी एवं एमाले ने संविधान सभा पुनस्र्थापना का एजेण्डा खोल दिया है । लेकिन मधेशी मोर्चा अभी भी मौन है । उपेन्द्र यादव एवं शरत सिंह भंडारी का दल भी राजनीतिक सहमति के आधार दूसरी सरकार गठन कर निर्वाचन के ही पक्ष में हैं । अर्थात् मधेश केन्द्रित दल भिन्न भिन्न दृष्टिकोण के कारण विभाजित हैं । अतः एकीकरण के लिए पर्याप्त  गृहकार्य आवश्यक है ।

राजनीतिक स्थायित्व के लिए दलों की स्थिरता

अभी राजनीतिक स्थायित्व के लिए बडी –बडी सिद्धान्तों की बाते हो रही है जैसे की संसदीय पद्धति, राष्ट्रीय पद्धति एवं प्रधानमन्त्रीय पद्धति के बिषय में बहस जारी है । लेकिन राजनीतिक दलो को कैसे सुदृढ किया जाये इसके बारे में बहस नही हो रही हैं । अभी तक सत्तासीन दलों एवं  शासक वर्ग की आवश्यकता के अनुसार दलो को राजनीतिक दल सम्बन्धी कानून तथा निर्वाचन आयोग का गलत प्रयोग कर  फुटाया गया है । कार्य समिति तथा संसदीय दल के ४० प्रतिशत सदस्यो के समर्थन के आधार पर दलों के विभाजित होने की व्यवस्था कायम रखी गयी है । सिर्फ कार्य समिति के विभाजन के आधार पर तो दलका विभाजन तो होना ही नही चाहिए और संसदीय दल का विभाजन भी ४० प्रतिशत केन्द्रीय कार्य समिति के सदस्यों की सहमती के आधार पर ही होना चाहिए । तब जाकर नीतिगत कारणों से पार्टी बिभाजित होगी , मात्र सत्ता के  स्वार्थ से नहीं ।
संघीयताके प्रारुप के निर्णय नयाँ निर्वाचित संसद के जिम्मे मे लगाने के लिए मधेशी दलोें को भी सहमत होना पडेगा । लेकिन नये संविधान में राजनीतिक दल एवं निर्वाचन आयोग सम्बन्धी कानूनों मे भी आवश्यक परिवत्र्तन के लिए पुनः स्थापित संविधान सभा में संघर्ष करना होगा । ताकि संसदीय निर्वाचन के बाद एकीकृत मधेशी दल पुनः सिर्फ सरकार एवं सत्ता के लिए नही फूटें । केन्द्रिय कार्य समिति या संसदीय दल के विभाजन के लिए मात्र चालीस प्रतिशत सदस्यो के सहमति के प्रावधान को हटाना होगा । मात्र केन्द्रिय कार्य समिति के चालीस प्रतिशत सदस्यो के मत के आधार पर दलो के गठन के प्रस्ताव को समाप्त करना होगा । संसदीय दल के चालीस प्रतिशत सदस्यों को नयाँ दल स्थापित करने के लिए केन्द्रीय कार्य समिति के चालीस प्रतिशत सदस्यो का समर्थन भी आवश्यक करना होगा । साथ ही दलो को  निर्वाचन आयोग के निर्णय के विरुद्ध पुनरावेदन अदालत तथा सर्वोच्च अदालत मे जाने की कानूनी व्यवस्था करनी होगी ।  तभी  जाकर निर्वाचन आयोग का प्रयोग परम्परागत शासक वर्ग अन्य दलो के बिरुद्ध नही कर पायेगें ।

राजनीतिक जडता के अंत के लिए साझा दृष्टिकोण

संविधान सभा से ही संविधान बनाने के लिए पुनः संविधान सभा के निर्वाचन की घोषणा की गयी है । लेकिन सरकार का निर्णय गलत साबित होने जा रहा है क्योंकि मंसीर ७ गते निर्वाचन नही होने जा रहा है । वहाँ से सरकार प्रति की  अविश्वासनीयता  और भी बढ जायेगी । उससे उबरने के लिए सरकार अपने विस्तार की चर्चा बाहर ला रही है और अब तो प्रधानमंत्री  अपनी वैधानिकता को पुनः स्थापित करने के लिए संविधान सभा पुनस्र्थापना के पक्ष में आ चुके हैं हो सकता है कि मंसीर ७ गते के पहले ही सरकार बाधा अडकाव फूकाउका प्रयोग कर संसद पुनस्र्थापन की सिफारिश राष्ट्रपति में करे नहीं तो मंसीर ७ गते के बाद अन्तराष्ट्रिय समुदाय संविधान विहीनता के कारण नेपाल को एक विफल राज्य घोषित कर सकता है । देश को आज भी वह दिन याद है जब चुनाव नही करा सकने की कारण तत्कालीन प्रधान मन्त्री शेर बहादु देउवा को राजा ने पदच्युत किया था और तब बहुत सारे नेतागण राजा के प्रधानमंत्री बनने के लिए पंक्तिबद्ध हुए थे । अगर प्रधानमंत्री एवं सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति ने संसद की पुनस्र्थापना नहीं की तो फिर राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री के बीच द्वन्द प्रारम्भ हो सकता है । 
अतः राजनीतिक निकास के लिए मधेश केन्द्रित दलों को सबसे पहले साझा दृष्टिकोण बनाने का अभ्यास शुरु होना होगा । अब संयुक्त लोकतान्त्रिक मधेशी मोर्चा, उपेन्द्र यादव एवं शरत सिंह भंडारी को भी संसद एवं संविधान पुनस्र्थापना के पक्ष में संस्थागत निर्णय लेना आवश्यक है  और उसके बाद संविधान सभा से संघीय संविधान जारी कराने का प्रयास करना होगा । यदि संघीयता के प्रारुप बारे में सहमति संभव नही होगी तब सहमत हुए बिषयों को समेट कर संविधान जारी कर संघीयता के प्रारुप के विषय में निर्णय के लिए संसदीय निर्वाचन में जाने के लिए तैयार होना होगा । मधेश केन्द्रित दलों को एक साझा मंच बनाकर संसदीय निर्वाचन के लिए तैयार होना होगा । और उस बिन्दु पर आकर सभी मधेश केन्द्रित दलों के एकीकरण का औचित्य प्रमाणित होगा ।
**********************************************************************************
तिथि ः२०६९।०६।२७

Comments

  1. Might be wrong interpretation, I have one more interpretation of Ardha-Loktantra. Co-incidentally I have also used the same term in Aajko Sandesh Patrika about 2 years ago. In my view, Arhta-Loktantra means the loktantra that only some percentage of population gets right to enjoy it. Rest of the population are governed by that some percentage of population. In Nepal it is in practice since long time. A single ethnic community in Backing of Rajtantra, so-called communist and congress has been governing rest of the population.

    ReplyDelete
  2. It is very old technique of Khas Community to Share and rule the state between themselves. King+Rana, Rana+Congress+King, King+Congress, King+Communist, Congress+ UML. Perhaps Nepal is the first country where the two opposite political polar; Capitalist and communist have formed government together. They always do it to continue and strengthen the nexus of Khasbad. They do not want to let other community to come into power. Bahuladiya Janabad, Samajbadi loktantra or Prachand-path fail when there is issue of the communities besides Khas.

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

सुगौली संधि और तराई के मूलबासिंदा

 सुगौली संधि और तराई के मूलबासिंदा सुगौली संधि फिर से चर्चा में है । वत्र्तमान प्रधानमंत्री ओली ने नेपाल के नये नक्शे के मुद्दे को फिर से उठाते हुए १८१६ की सुगौली संधि का एक बार फिर से जिक्र किया है ।  लेकिन इस बारे बोल  सिर्फ प्रधानमंत्री रहे है। इस संधि से सरोकार रखने वाले और भी हैं लेकिन सब मौन हैं । इतिहास की कोई भी बडी घटना बहुताेंं के सरोकार का विषय होता है लेकिन घटना के बाद इतिहास का लेखन जिस प्रकार से होता है, वह बहुत सारी बातों कोे ओझल में धकेल देता है और और बहुत सारे सरोकारं  धीरे धीरे विस्मृति के आवरण में आच्छादित हो जाते है । नेपाल के इतिहास में सुगौली संधि की घटना भी एक ऐसी ही घटना है ।  वत्र्तमान प्रधानमंत्री ओली सुगौली संधि का जिक्र तो कर रहे हैं लेकिन सरकार से यदि कोई संधि की प्रति मांगे तो जबाब मिलता है कि संधि का दस्तावेज  लापता है । संसद को भी सरकार की तरफ से यही जबाब दिया जाता है । यह एक अजीबोगरीब अवस्था है।  जिस संधि के आधार पर सरकार ने नेपाल का नया नक्शा संसद से पारित करा लिया है , उस सधि  के लापता होने की बात कहाँ तक सच है, यह सरकार और नागरिक समाज जाने और समझे । 

What triggered the rage?

Some days ago I posted a tweet saying that the national unity can be strengthened in the country by sharing the symbols of dress and language of two different and distinct peoples as the official symbols of Nationalism. What happened immediately after that was surprising as well as shocking. There was a kind of flash flood of tweets directed to me and submerging me. I was getting breathless as I was trying to read each and every one of them. But before I could finish one, another one was there. Huge number of tweets in replies  coming like shells of bomb with super speed was not some thing natural, and as someone tweeted afterwards that nearly 300 tweets per minute were coming to me.They were hurting me and making my soul bleed in pain. I then     realized what  the rage of racism and hatred could be like and how powerful the hidden rage can be when it explodes all of a sudden like a volcano . I also realized that how disastrous the impacts   could be upon a supposedly vulnerabl