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नेपाल की बदलती विदेश नीतिः मधेश की आँखों से -भाग ३ं

नेपाल की बदलती विदेश नीतिः मधेश की आँखों से -भाग ३ं

( नेपाल के परिप्रेक्ष्य में  कांतिकारी राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादी युद्ध)

 ब्रिटिश साम्राज्यवादियो ने १९४७ में भारत को स्वतंत्र किया और १९४९ तक आते आते चीन  भी जापान को अपने देश से भगाने में सफल रहा ।  चीन में चिनिया कम्युनिष्ट क्रांति भी सफल हुई लेकिन उसके बाद  क्युमिनटांग पार्टी के नेता च्यांग काई शेक, जो कम्युनिष्ट नहीं थ, को मेनलैड चीन छोडकर ताइवान भागना पडा । अमेरिका के सहयोग और संरक्षण में च्यांग काई शेक ने वहाँ अपनी सरकार बनाई ।  भारत को ब्रितानियों ने भी आनन फानन में ही छोडा था । जब भारत का धर्म के नाम पर दो देशों में विभाजन होना निश्चित हो गया तब ब्रिटिश सुरकार ने जल्दी बाजी में एक ब्रिटिश नक्शा विज्ञ को बुला कर भारत और पाकिस्तान का नक्शा बनाने का कार्य सौपा गया । उस विज्ञ को मात्र तीन महिने का समय दिया गया था । उपदब्ध कराए हुए दस्तावेजों के आधार पर भारत और पाकिस्तान की सीमा रेखा कागज पर खींची गयी । जब ब्रितानी सरकार ने उस नक्शे को स्वीकार किया और भारत और पाकिस्तान के लोग अलग होने लगे तब दोनों देशों में हत्या और ह्रिसा का  दर्दनाक और दुर्दान्त दौर चला । उस दौर की घटनाओं की  स्मृति आज भी दोनों देशों में जीवित र्है और उसके प्रभाव से भारत और पाकिस्तान की मानसिकता और राजनीति आज भी मुक्त नहीं हो पायी है । 

 उस समय घटी हत्या, हिंसा और जन विस्थापन के कारण नक्शा बनाने वाले ब्रिटिश विज्ञ अपने आप को कभी भी दोष भाव से मुक्त नहीं कर पाए । उनको जीवन पर्यन्त लगता रहा  कि जल्दी बाजी में जो नक्शा उन्होंने बनाया , हत्या और हिंसा का एक कारण वह मी है । बाद में पाकिस्तान का भी विभाजन हुआ और तीसरा देश बांग्लादेश बना । हिंसा, युद्ध और विस्थापन की वृहद और दुर्दान्त घटनाएँ उस समय भी घटी । बांग्लादेश के निर्माण में भारत की सेना ने भी अहम भूमिका का निर्वाह किया । विभाजन के बाद भारत और पाकिस्तान बीच तब से आज तक चार बडे युद्ध हो चुके हैं ।

चीन और नेपाल  भी भारत की सीमा पर अवस्थित खेश हैं और आज भी बहुतेरे  जगहों पर देशों की सीमा अनिर्णित है ।  जिस ढंग से ये देश  स्वतंत्र हुए है और जिस प्रकार की कठिन भौगाेिलक परिस्थितियाँ सीमाओं पर विद्दमान है, जगह जगह पर सीमाओ का अनिर्णित होना कोई अस्वाभाविक बात  नहीं है ।  भारत और नेपाल का नक्शा भी शुरु में ब्रितानियों ने ही बनाया था । दक्षिण एशिया के इस भूभाग में  देशों के बीच  आज का सीमा विवाद ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन  की ही देन है । पहले यह भूभाग युरोप के जैसा था। इस भूभाग में बडे या छोटे राजा रजवाडे और जमींदार थे । उनके बीच द्वन्द और युद्ध की समस्याएँ उस दौरान भी थी, लेकिन शायद आज  जैसी  जटिल और कठोर नही थी ।  देशों, रजवाडों और  जमींदारियों ं की सीमा बदलते रहती थी । युद्ध या द्वन्द के मैदान में जिसका पलडा भारी रहता था उसके आधिपत्य को दुसरा पक्ष सहर्ष ही स्वीकार कर लेता था । लेकिन स्थायी सत्ता या सीमा जैसा उस वक्त कुछ भी नहीं  था । स्वामित्व या सीमाएँ बदलती रहती थीं । देशों और राजा रजवाटों  के बीच युद्ध अन्तराष्ट्रिय स्वार्थ का विषय भी नहीं होता था। लेकिन इस भूभाग पर साम्राज्यवादी शक्तियों के उदय ने परिस्थितियाँ बदल दी  । साम्राज्यवाद के युग में एशिया में चीन को भी जापान और मंगोलिया के साथ बार बार युद्ध लडना पड रहा था । भारत की जनता को भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति के लिए दो सौ वर्षो तक संघर्ष करना पडा था । 

सन् १९१७ में सोवियत क्रांति की सफलताके बाद चीन में जब चिनिया कम्युनिष्ट पार्टी का जन्म हुआ तब माक्र्स और लेनिन के सिद्धान्त के अनुसार पहले वह पार्टी अन्तराष्ट्रियवाद को मानती थी और  लेनिन की बोलशेविक पार्टी के नेतृत्व में ही चिनिया कम्युनिष्ट पार्टी काम करती थी । कम्युनिष्ट अन्तराष्ट्रियवाद का तात्पर्य पूरे विश्व में एक ही पार्टी के नेतृत्व में समाजवाद की स्थापना का था ।  लेकिन जापान के साथ युद्ध लडने के लिए अन्तराष्ट्रियवाद पर आधारित कम्युनिष्ट सिद्धान्त चीन के  काम नहीं लग रहा था । तब माओत्से तुंग ने चिनिया कम्युनिष्ट पार्टी को  कम्युनिष्ट अन्तराष्ट्रियवाद से अलग कर क्रान्तिकारी राष्ट्रवाद और समाजवाद को आधार मानकर अपने लेखन और संघर्ष को आगे बढाया । नव जनवाद और क्रातिकारी राष्ट्रवाद माओवादी विचार धारा के नये स्तम्भ थे । माओ त्से तुंग की विचारधारा को माओइज्म के नाम से जाना जाने लगा । माक्र्सिज्म , लेनिनिज्म और  माओइज्म के प्रभाव में भारत और नेपाल में भी कम्युनिष्ट पार्टी का गठन हुआ । २००६ साल में स्थापित नेपाल कम्युनिष्ट पार्टी ने माओ का अनुसरण करते हुए  नौलो जनवाद तथा क्रान्तिकारी राष्ट्रवाद की अवधारणा को अंगीकार किया ।

चीन की अवधारणा को नेपाल के परिप्रेक्ष्य में व्याख्या करने और लागु करने की जिम्मेवारी अब नेपाल के कम्युनिष्ट नेताओं के लिए चुनोती थी । माओवादी सिद्धान्त को नेपाल में लागू करने के लिए नेताओं ने शत्रु साम्राज्यवादी शक्ति ंके रुप में भारत की पहचान की । यह विडम्बना ही है कि दो शताब्दियों तक ब्रिटिश साम्राज्यवादी शक्ति के विरुद्ध संघर्ष करने वाला भारत स्वतंत्र होने के साथ ही नेपाल के लिए शत्रु साम्राज्यवादी देश बन गया । लेकिन सिद्धान्त की आवश्यकता के लिए यह करना नेपाल कम्युनिक्ष्ट पार्टी की आवश्यकता थी । देश के अन्दर सामन्तवाद का प्रतीकं राजा , सामन्त और  प्रजातांत्रिक समाजवादी कांग्रेस बन गये  । और अब आवश्यकता थी क्रांतिकारी राष्ट्रवाद की भावना को पार्टीवृत और राजनीतिक वृत में जगाने की और इस आवश्यकता को पूरा करने के नेपाल में कम्युनिष्ट नेताओ ने नेपाली  राष्टवाद को  भारत विरोधी राष्ट्रवाद के रुप में प्रचारित किया ।  प्रारम्भ से लेकर अभी तक देश के पहाडी भूभाग में  कम्युनिष्ट राजनीति को उर्जा देने के श्रोत के रुप में भारत विरोधी राष्ट्रवाद की भावना को ही जगाया जाता रहा है । 

 कम्युनिष्ट पार्टी से पहले भी राणा शासन के पक्षधरों ने राणा शासन का अन्त भारत के हस्तक्षेप के कारण होने की बात को आधार बनाकर भारत विरोधी राष्ट्रिय भावना को प्रचारित किया था । उसके बाद जब २०१५ साल में ं जब नेपाली कांग्रेस की जन निर्वाचित सरकार बनी तब राजावादी तथा  कम्युनिष्ट भारत और कांग्रेस के विरुद्ध में लग गये । २०१७ साल में जब राजा महेन्द ने जन निर्वाचित संसद को भंग कर शासन अपने हाथ में लिया तो सबसे पहले  विभेदकारी नागरिकता कानून बनाकर तथा हिंदी भाषा को प्रतिबंधित कर और देश में एक भाषा तथा एक भेष का अभियान चलाकर मधेशी पहचान और अधिकार पर आक्रमण किया । राजा के प्रत्यक्ष शासन सहित की पंचायती व्यवस्था के ढलने के बाद जब प्रजात्रत्र की पुनर्बहाली हुई तब मधेश आन्दोलन से जन्मी नेपाल  सद्भावना पार्टी को भारत का पक्षधर बनाकर नेपाली शासक वर्ग ने नेपाली राष्ट्रवाद के शत्रु के रुप में मधेशी समुदाय को प्रचारित किया । २०४६ साल के बाद के इस अभियान में  नेपाली कांग्रस और नेकपा एमाले दोनों साथ रहे । नेपाल कम्युनिष्ट पार्टी तोे माओ और राजा महेन्द को अपना आदर्श मानकर काम करने लगी । 
लेकिन नेपाल में  राजनीतक इतिहास का विकास चीन के जैसा नहीं हुआ । चीन में क्रान्तिकारी राष्ट्रवाद का आधार चीनी जापान युद्ध था । लेकिन नेपाल को सन् १८१६ और १८६० की संधि के बाद भारतके साथ कोई युद्ध लडना नहीं पडा है।  राष्ट्रवाद की भावना को अंतिम उत्कर्ष तक पहुँचा कर घृणा और हत्या की राजनीति को आगे बढाने के लिए  राष्ट्रवाद के नाम पर शत्रु देश से युद्ध आवश्यक होता है ।  भारत और नेपाल के बीच युद्ध न होने के कारण नेपाल में  भारत विरोधी राष्ट्रवाद  अंध राष्ट्रवाद की सीमा तक नहीं पहुँचा  है । वह अब तक सैद्धान्तिक अवधारणा और नारों तक ही सीमित है । लेकिन इस बार भारत से एक बार भी औपचारिक सम्बाद किये बिना नेपाल की कम्युनिष्ट सरकार ने जिस प्रकार से नये नक्शे को स्वीकार किया है, उसके पीछे भारत विरोधी राष्ट्रवाद के नाम पर व्यापक जन परिचालन का लक्ष्य और आवश्यकता पडने पर सरकार की भारत के साथ युद्ध में टकराने की आकांक्षा भी छिपी हुई है । यह वृति तो पहले भी उजागर हुई थी जब माओवादी जनयुद्ध के दोरान आखिर भारत के साथ सुरंग युद्ध की घोषणा माओवादी पार्टी ने किया ही था । 


सरिता गिरी 
ज्येष्ठ १४,२०७७
मे २७ , २०२०

Comments

  1. Tume to india me hona chahi ye tha NEPAL kaise aagaye lendupe ji

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  2. खाती पिती नेपाल की ! गाना बजना अंगेजी गुलामिओ की ! साला जिन्दगीमे नेपालका कानुन और शाषक निकम्वा देखराहहुँ , ऐसी जहेरीली औरतको क्यू और कैसे संसद मे जग्गा मिलराहाहे … देश द्रोही को

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