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नेपाल में मधेश की राजनीति की भावी दिशाः हिमाल, पहाड और मधेश प्रदेश सहित नेपाल संघ का निर्माण

नेपाल में मधेश की राजनीति की भावी दिशाः हिमाल, पहाड और 

मधेश प्रदेश सहित नेपाल संघ का निर्माण




१।मधेश की राजनीति में अभी तीन धारे दिख रही हंै । एक धार आत्म निर्णय के अधिकार सहित के स्वायत मधेश प्रदेश की धार है लेकिन इस धार में मधेश की सीमा के बारे में अस्पटता दिखती है । दूसरी धार अलग होने के अधिकार सहित मधेश प्रदेश निर्माण की धार है और यह पूर्व के झापा से पश्चिम के कंचनपुर तक को मधेश प्रदेश मानती है । तीसरी धार भी झापा से कंचनपुर तक समग्र मधेश एक प्रदेश के निर्माण की धार है , लेकिन इसका अंतिम लक्ष्य स्पष्ट नहीं है अर्थात् यदि समग्र मधेश प्रदेश नहीं मिला तब यह भी अलगाववादी धार के तरफ जाएगी, यह स्वतः अनुमान लगाया जा सकता है । पहली धार स्वातता के नाम में मधेश की औपनिवेशिक अवस्था को निरन्तरता देने की पक्षधर है क्यों कि आत्म निर्णय तहत क्या होगा और नही होगा, इस बारे में स्पष्टता अभी तक नही दिखी है।

राजनीति और इतिहास का गहरा और व्यापक सम्बन्ध होता र्है । अगर नेपाल में मधेश की राजनीति का गहराई और व्यापकता का सूक्ष्मता के साथ विश्लेषण किया जाए तो निष्कर्ष निकलता है कि तीनों धारें बिट्रिश भारत के साम्राज्यवादी इतिहास और उसकी लेगैसी से प्रभावित हैं । इन तीन धारों का राजनीतिक दृष्टिकोण नेपाली शासकों के द्धारा किये गये नेपाल एकीकरण और ब्रिटिश इंडिया के साथ नेपाल द्धारा किये गए संधि समझौतों से ही प्रभावित है । इन दो धारो के लिए नेपाल का पिछले २५० या ३०० वर्षो का इतिहास ही मायने रखता है । लेकिन हिमाल, पहाड तथा मधेश प्रदेश सहित के कनफेडरल नेपाल की अवधारणा मधेश और नेपाल के प्राचीनतम इतिहास और संस्कृति की समझ और याद पर आधारित है।

यथार्थ में मधेश, पहाड और हिमाल की सम्पूर्ण जनता की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मुक्ति इसी अवधारणा तहत सम्भव है। और यह भी ध्रुव सत्य है कि इतने व्यापक रुपान्तरण की शक्ति का नेतुत्व करने की आधारभूत क्षमता आज की अवस्था में सबसे पहले मधेशियो के साथ और उसके साथ जनजातियों के पास है । समग्र मधेश एक प्रदेश के प्रति दृढ अडान ही इस रुपान्तकारी राजनीति का आधार पुंज होगा ।

इस संदर्भ में पहले हमें यह स्पष्ट होना होगा कि समग्र मधेश एक प्रदेश की मांग के आधार क्या क्या हैं ।निश्चित रुप से आधुनिक इतिहास मे इसका पहला आधार शासक वर्ग और ब्रिटिश भारत के बीच हुए १८१६ और १८६० की दो संधियाँ हैं जिसके तहत आज हम जिसको मधेश कहते हैं, वह ुभूमि नेपाल के साथ जुडी । उसके बाद देश के कानून की परिधि के भीतर इसका दूसरा महत्वपूर्ण आधार राणाकालीन मधेश गोश्वारा ऐन है जिसके अंतर्गत झापा से लेकर कंचनपुर तक के मधेशी भूभाग को विभिन्न जिलों में विभाजित करते हुए कर उठाने की व्यवस्था की गयी थी ।






२। साहित्य समाज का दर्पण होता है । पहाडी मूल के शासक मधेश शब्द से कतराते हैं लेकिन पहाडी मूल के लेखकों की कृतियों को देखा जाये तो उनमें यत्र तत्र मधेश शब्द का उल्लेख है । इसीलिए पहाडी समुदाय के मानस में मधेश पहले से ही है । ततपश्चात् २००७ साल से नेपाल में मधेशियों के नेतृत्व में प्रारम्भ हुए मधेश और मधेशी के अस्तित्व, अधिकार, प्रतिनिधित्व और पहचान के लिए प्रारम्भ हुए राजनीतिक आंदोलन का व्यापक प्रभाव और परिणम तो जनस्तर में २०६२ ६३ के जन आंदोलन और मधेश आंदोलन के दौरान सडको पडा और उसके बाद सिंह दरबार और संविधान सभा तक सडकों की प्रतिध्वनि पहुँची । लेकिन दुर्भाग्यवश उस अनुरुप संविधान बने , उससे पहले ही संघीयता, शासकीय स्वरुप और मधेश के विषयों को ही लेकर या उनको ही मूल विषय बनाकर संविधान सभा को भंग भी कराया गया ।
संघीयता, शासकीय स्वरुप और मधेश के विषय को लेकर संविधान सभा भंग कराने में एकीकृत नेकपा माओवादी के शीर्षस्थ नेताओं की भूमिका अग्रणी रही । नये मधेशवादी दल सहित अन्य परम्रागत साम्यवादी और समाजवादी शक्तियों का भी उनको सहयोग रहा । कम्यूनिष्टों ने अन्य देशों में मानव मुक्ति के लिए सर्वहारा वर्ग के शासन की स्थापना का सपना दिखाते हुए क्रांति को सफल बनाने के बाद कम्यूनिष्ट पार्टी के अधिनायकवादी शासन को स्थापित किया। वैसे ही नेपाल में माओवादियों ने शोषित पीडित जाति अथवा जनजाति को मुक्ति का सपना दिखा कर जनयुद्ध के लिए उनकी शक्ति का संचित कर प्रयोग तो किया लेकिन युद्ध के मार्फत सत्ता कब्जा करने मे असफल रहे । उनकी क्रांति का पहला अध्याय असफल हुआ ।


३। जातीय पहचान और स्वायत्तता सहित का संविधान लाने मे असफल होने के बाद दूसरे संविधान सभा निर्वाचन में चुनाव लडने वाले माओवादी घटक के नेता जातीय संघीयता के नारे से काफी पीछे हटें और उनके विद्वान नेतागणों नवदूसरे चुनाव में आर्थिक विकास का सपना बाँटने की कोशिश की । यथार्थ में जातीय पहचान के आधार पर संविधान देने की अवस्था ना दिखने पर पहले संविधान सभा को भंग कराकर विकास के सपना को ही बेचने का प्रयास किया था माओवादी सरकार ने । लेकिन दूसरे संविधान सभा निर्वाचन में तीसरे दल के रुप में स्थापित होने के बाद उनका संकट गहरा हो गया है । सिंगापुर, दक्षिण कोरिया जैसे देशो के विकास के माँडल का अनुकरण करते हुए साधारण बहुमत के आने पर उस बहुमत की तानाशाही लादने की योजना बाबुराम भटराई नेतृत्व की सरकार की थी । लेकिन माओवादी का दूसरा घटक बाबुराम जी के विकास के माडल स्वीकार करने के लिए कतई भी तैयार नहीं है । इसलिए विकास के सन्दर्भ में भी माओेंवादियों की सांदर्भिकता आने वाले दिनों में और भी घटने जा रही है ।

मधेशवादी दलों के साथ का सहकार्य भी उनके लिए सकारात्मक परिणाम नहीं ला सका। यहाँ तक की मधेशवादी दलों को बहुत बुरे परिणाम का सामना करना पडा । संविधान सभा भंग करने की सजा मधेशी जनता ने उनको भी दी, सिर्फ माआवादियों को नहीं । माओवादी प्रभाव में मधेशवादी दलों ने संविधान का मुद्दा छोडकर दूसरे निर्वाचन मार्फता अपनी शक्ति निर्वाचन मार्फत अपनी शक्ति को बढाने का सपना देखा था । परिणाम बिल्कुल विपरीत हुआ ।इसके बावजूद भी दूसरे संविधान सभा में पहुँचे लगभग सभी मधेशी दल के नेताओं ने माओवादियों के साथ फिर से मोर्चा बनाया है, इस अपेक्षा अथवा विश्वास के साथ कि इस मोर्चे के कारण उन्हे मधेश मेँ कम से कम दो स्वायत्त प्रदेश मिल जाएगा । हालाँकि एकीकृत माअ‍ेवादी किस सैद्धान्तिक और राजनीतिक आधार पर मधेश में दो प्रदेश दिलाने में सहयोग करेंगे , यह ना तो पहले संविधान सभा काल में ही स्पष्ट था, ना तो आज स्पष्ट है । संघीय स्वरुप के बारें बिना किसी स्पष्टता के माओवादी ओर मधेशी दलों के बीच बने मोर्चा से मधेशवादी दलो को पहले की तरह एक बार फिर धोखा हाने की सभ्भावना आज भी उतनी ही प्रबल है।


४।इसका मतलब यह नही कि कांगे्रस और एमाले के साथ की मोर्चाबंदी से मधेशियो को मधेश में दो प्रदेश मिलने वाला है । कांग्रेस और एमाले नेपाल में २०४७ साल के बाद के राजनीतिक समीकरण को पुनस्र्थापित करने में लगे हैं तो माओवादी उस सत्ता समीकरण को भंग कराकर अपनी सत्ता के प्रभुत्व को स्थापित करने में लगा हैं।
माओवादीयो का एजेण्डा जातीय और भाषिक आधार पर मधेश का पाँच क्षेत्रों में विभाजन है । कांग्रेस एमाले भी मधेश के बारे में माओवादी अवधारणा से दूर नहीं है जब कि समग्र मधेश एक प्रदेश की मांग मधेश की साझा संस्कृति, इतिहास , भूगोल और सामुदायिक संस्कृति पर आधारित है । मधेशी मुक्ति के लिए आत्मनिर्णय के अधिकार सहित स्वायत मधेश प्रदेश की माँग कम्यूनिष्ट विचार धारा से प्रभावित मधेशवादी दल ही कर रहे है। लेकिन जय कृष्ण गोइत के माओवादी पार्टी से अलग होने के बाद मधेश के संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र संघ के एजेण्डा ने भी प्रवेश किया है, हालाँकि वे देश से बाहर अपना निर्वासित जीवन ब्यतीत कर रहे है ।

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद स्थापित संयुक्त राष्ट्र संघ राष्ट्रियता एवं राष्ट्रवाद और उनके आधार पर नये राष्ट्र के निर्माण के बारे में युरोपीयन और कम्युनिष्ट अवधारणा से अलग कुछ नयी अवधारणा नही दे नहीं पाया है । यहाँ तक कि बी. पी. कोइराला भी नेपाल के राष्ट्रियता के बारे में जवाहर लाल नेहरु के साथ हुए वात्र्तालाप में युरोपीयन अवधारणा के अनुसार नेपाली राष्ट्रियता विकसित करने की बात कही थी ।

लोकतांत्रिक नेपाल में राष्ट्रवाद और राष्टियता के मामले में नेपाल में दिख रही संकीर्णता के कारक तत्व सिर्फ पूर्व राजा महेन्द्र की सोच और अवधारणा ही नही है बल्कि बी. पी कोइराला की सोच और चिंतन भी उतनी ही जिम्मेवार है । आज जब नेपाल संघीय पुननिर्माण के कगार पर खडा है तब नेपाल मात्र नेपाली समुदाय की पहचान और भाषा के आधार पर एक राष्ट्र राज्य (nation -state ) होगा या फिर सभी के समान अधिकार और अस्तित्व का सम्मान करने वाला एक राज्य राष्ट्र (state-nation) होगा,सर्वाधिक महत्वपुर्र्ण प्रश्न है । राज्य राष्ट्र का उदाहरण भारत है ।

आज के दिन मधेश के पास ही वह ताकत और दृष्टिकोण है जो नेपाल राज्य को मात्र नेपाली राष्ट्र से सबों की पहचान का प्रतिनिधित्व करने वाले एक राज्य राष्ट्र बनाए । मधेशियों का सिर्फ मधेश केन्द्रित होने से और अलगाववादी होने से उनकी समस्या का दीर्घकालीन और सर्वोत्तम समाधान नही है । मधेश केन्दित होते हुए सम्पूर्ण नेपाल के नवनिर्माण के बारे मे उत्तरदायी सोच और कर्म के बारे मे भी स्पष्ट होने की आवश्यकता है क्यों कि संघीयता मधेश का एजेंडा रहा है। आज एक बार फिर स्व. गजेन्द्र नारायण सिंह और स्व. राम राजा प्रसाद सिंह की राजनीतिक परम्परा को पुनर्जिवित करने की आवश्यकता है । ..




५। यह दूसरी बात है कि मधेश अभी संगठित नहीं है । यथार्थ में अभी वैचारिक स्तर पर भी पर्याप्त कार्य नहीं हुआ है । उसका मुख्य कारण है कि कोई भी राजनीतिक दल इस जिम्मेवारी को वहन करने के लिए स्थिर, संगठित और सफल नहीं हो पा रहा है । मधेश का स्थापित नेतृत्व वर्ग अपने अपने राजनीतिक दडबे में अपनी अपनी उलझनों के साथ बंद हैं और मधेश की जनता और विशेषकर युवा वर्ग दिग्भ्रमित है । आज के परिवेश में अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए मधेश को अपना रास्ता अपने मौलिक सोच और बलबूते पर ही तय करने के लिए तैयार होना होगा और इसके लिए स्पष्ट सोच एवं परिकल्पना के साथ राजनीतिक दल की अग्रणी भुमिका अपरिहार्य है । मधेश आंदोलन का नेतृत्व असंगठित राजनीतिक दलों ने किय था, इसीलिए मधेश आंदोलन की प्राप्ति को बिखरते भी समय नहीं लगा ।

मधेश के पास आदर्श और प्रेरणादायी नेतृत्व के श्रोत व्यक्तित्व भी हैं । यथार्थ में समानता, समान अधिकार, समान प्रतिनिधित्व और सामाजिक न्याय के लिए नेपाल के राज्य संरचना के परिवत्र्तन के आंदोलन में अग्रगामी भूमिका मधेशी मूल के शीर्षस्थ नेताओं ने ही निभायी है और उनमें से दो नाम सबसे आगे हैं। वे नेता हैं रामराजा प्रसाद सिंह और गजेन्द्र नारायण सिंह । रामराजा प्रसाद सिंह कम्यूनिष्ट नही थे लेकिन उन्होंने देख लिया था कि नेपाल की राष्ट्रिय एकता के रास्ते में सबसे बडा बाधक खसवादी राजतंत्र है और उसने ही देश को सबसे पहले शासक और शासित वर्ग में और बाद में जातीय, , सांस्कृतिक, भाषिक, लैंगिक और वगीैय आधार पर विभाजित कर रखा है। मधेश और नेपाल के प्राचीन ऐतिहासिक परम्परा तथा धरोहर की समझ के आधार पर उन्होंने गणतंत्र की स्थापना के लिए मंत्र फूँका और हथियार भी उठाया । आज नेपाल एक गण्तांत्रिक देश है । यह उनके विचार और राजनीति की सफलता है । उनके राजनीतिक चिन्तन एवं दृष्टिकोण इस भूखण्ड के उचभजष्कतयचष्अ एवँ प्राचीन ईतिहास से प्रभावित रहा है। हजारों वर्ष पहले हिमालय की तलहटी यानिकि मूलतः मधेश मे विकसित हुँए गणपदों के ईतिहास के आधारपर गणतन्त्र की स्थापना की माँग करते हुए इस देश के मूल निवासी मधेशी , आदिवासी एवँ जनजाति के बीच सहकार्य एवँ सँवाद की बात उन्होने उठायी । चिंतन के धरातल पर वे कभी भी ब्रिटिश साम्राज्यवादी इतिहास एवं उसकी लेगैसी के बंदी नहीं हुए ।





६।जनआन्दोलन मे रामराजा प्रसाद सिंह माओवादी के नजदीक हुए । माओवादीयो ने उन्हे राष्ट्रपति पद का उम्मेदवार भी बनाया लेकिन अन्त में उनके साथ धोखा हुआ । गणतन्त्र आने के बाद लोकतान्त्रिक खेमा यदि उनको राष्ट्रपति के उम्मेदवार के रुपमें लाता तो आज नेपाल का एक संघीय गणतांत्रिक देश में सही ढँग से रुपान्तरण हुआ होता । लेकिन नेपाली शासकों के वर्चस्व के देश मे. ऐसा ना होना था और ना ऐसा हुआ । इसका मूल कारण रामराजा प्रसाद सिंह जी की मधेशी होना था ।उनकी अपनी मौलिकता और राजनीतिक तथा वैचारिक उँचाई थी जिसे यहाँ के शासक वर्ग अपने जातीय अहं के कारण किसी भी कीमत पर स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे ।

स्वर्गीय गजेन्द्र नारायण सिंह ने भी लोकतंत्र की स्थापना के लिए राणाओं के विरुद्ध बंदूक उठाया । लेकिन नेपाली कांग्रेस ने जब फिर से २०३३। ३४ साल में हिंसा की राजनीति की शुरुवात की तब वे कांग्रेस से अलग हुए । वे भी कम्यूनिष्ट नहीं थे । नेपाली कांग्रेस छोडने पर तो उन्होने समाजवादी दर्शन से भी अपना नाता तोडा और समतामूलक अवधारणा को स्वीकार कर नेपाल सद्भावना पार्टी की स्थापना की । साथ ही इस देश में इतिहास और सांस्कृतिक भिन्नता के कारण बहिष्करण में पडे शोषित समुदायों की पहचान और बराबरी के अधिकार के लिए अहिंसात्मक राजनीतिक आंदोलन की शुरुवात की । बार बार उनको गिरफतार किया जाता था और किसी समय में राज्य द्वारा उन्हें हनुमान ढोका में काफी शारीरिक यातना भी दी गयी थी ।

इस देशको संघीयता और अहिंसा की राजनीति उनकी देन है । जन आंदोलन इसलिए सफल हुआ क्योंकि वह शांतिपूर्ण था । संघीय शासन व्यवस्था, स्वायत्त मधेश प्रदेश के साथ–साथ उन्होने राज्य मेँ मधेशी समुदाय के लिए राज्य के हरेक तह में आधे हक की मांग की थी । घीयता तहत एक स्वायत समग्र मधेश प्रदेश की माँग भी की थी । उन्होने मधेशी समुदाय की परिभाषा सँस्कृति तथा भौगोलिक क्षेत्र के आधार पर की थी । यथार्थ में पहाडी समुदाय और मधेशी समुदाय मे फरक संस्कृति, भाषा तथा भूगोल के ही कारण है । जातीय एवं भाषिक आधार पर प्रदेश के निर्माण के पक्ष में वे कभी भी नहीं रहे । उनका यह कहना था कि ये नारे मधेशी समुदाय को विभाजित करने वाले हैं ।

वैसे तो उन्हो ने संघीय व्यवस्था अन्तर्गत मधेश मे दो प्रदेश की अवधारणा को स्वीकार किया था लेकिन वह सशर्त और बराबरी के सिद्धान्त पर आधारित था । उन्होने पहाडों मे भी दो प्रदेश की मांग की थी । राज्य संरचना की अर्थ राजनीति को वे बखुबी समझते थे । मधेशी राष्ट्रवाद के साथ साथ वे नेपाल की राष्ट्रिय एकता तथा सार्वभौमिकता के प्रति भी बडे सचेत थे । अपने नेतृत्व मे रहे नेपाल सद्भावना पार्टी को उन्होने कभी भी अलगावाद की दिशा मेँ जाने नहीँ दिया । लेकिन २००७ साल की क्रांति के बाद जब बि.पी कोईराला के नेतृत्व में रहे नेपाली काँग्रेस ने यूरोपियन ढाँचा के आधार पर नेपाली राष्ट्रवाद की अवधारणा को आगे बढाना में लग गये तब वे नेपाली काँग्रेस से विमुख होने लगे । नेपाली कांग्रेस में भी रहते हुए वे और मधेशी मूल के अन्य कई नेता मधेशवादी राजनीति करने लगे थे । आंदोलन को गजेन्द्र बाबु चेतना और राजनीतिक चरित्र के विकास के माध्यम के रुप में भी लेते थे । आंदोलन उनके लिए प्रयोग और अपनी शक्ति और निष्ठा की परीक्षा करने का भी माध्यम होता था। ऋौर यह उन्हीं की शिक्षा दीक्षा का परिणाम था कि २०६३ साल तक जिन मुद्दों को लेकर पार्टी की स्थापना हुई थी , उन सभी मुद्दों का संबोधन किसी न किसी रुप से हुआ। मधेश की लाखों जनता उन्ही मांगो को लेकर सडक पर उतरी थी जो सद्भावना ने अपने स्थापना काल में निर्धारित की थी ।



७। गजेन्द्र बाबु के निधन के पश्चात् मधेश की राजनीति अन्यौलता से ग्रस्त है । हाल मधेश की राजनीत में कम्यूनिष्ट और समाजवादी विचार धारा या फिर संयुक्त राष्ट्र संघ की अवधारणा हावी दिख रही है ।ये विचारधाराएँ आधुनिक नेपाल और मधेश के पिछले २५० या ३०० वर्षो के ईतिहास पर ही आधारित है। यह स्व. गजेन्द्र नारायण सिंह और स्व. रामराजा प्रसाद सिंह की समझ एवं परिकल्पना के विपरीत है । ये दोनो दृष्टिकोण नेपाल में मधेश एवं मधेशी राष्ट्रवाद एवं मधेशी पहचान और अधिकार के अभियान को संकुचित करनेवाला है । मधेश और मधेशी की मुक्ति और समृद्धि आत्म निर्णय अथवा अलग होने के अधिकार सहित मधेश प्रदेश ( दो , तीन या पाँच ) की स्थापना द्वारा सम्भव नही है ।
मधेशी एवँ जनजाति के राष्ट्रवाद,बराबर एवं समान अधिकार तथा समृद्धि के तथा नेपाली समुदाय की समृद्धि और शांति के लिए नेपालको हिमाल, पहाड और मधेश , तीन प्रदेशों का अयलाभमभचबतष्यल बनाना होगा, विभेद , असमानता, शोषण, गरीबी और दमन का अंत तभी होगा ।
हिमालय की तालहट्टीे के १६ गणपदो में हिमालय के जल में सिँचित मधेश की भूमि को हिमालय से अलग करने की बात मधेश के गौरवशाली प्राचीन ईतिहास को समझनेबाला कोई मधेशी सोच भी नही सकता है । हिमालय पर हमारा भी उतना भी अधिकार है जितना पहाड में बसोबास करने बाले पहाडी समुदाय का है । सांस्कृतिक रुप से हिमालय के साथ हमारा सम्बन्ध तो सबसे पुराना है । भौगलिक रुप से मधेश मधेशियों की मूल कर्म भूमि होनेका बाबजूद तिब्बत तक मधेश की संस्कृति का ही विस्तार हुआ है । मधेशकी प्राचीन संस्कृति ही हिमालय की सँस्कृति है । कृष्ण और शिव के अनुयायी हिमालय से अपने आपको अलग करने की सोच भी नही सकते हंै । शिव और शक्ति की पूजा करने वाले पशुपति और पहाडों के साथ अपना सम्बन्ध तोडने को सोच ही नहीं सकते हैं ।
हिमालय के इस भूखण्ड से अलग होनेका बाद शायद मधेशका स्वतन्त्र अस्तित्व भी नही बचेगा । मुझे हमेशा लगता है कि कम्यूनिष्ट विचारधारा या फिर संयुक्त राष्ट्र संघ की अवधारणा तहत आत्म निर्णय अथवा अलग होने के अधिकार सहित के मधेश प्रदेश की अवधारणा नेपाल में मधेश के प्रभाव को दुश्य , अदृश्य राष्ट्रिय और अंतराष्ट्रिय स्वार्थों के तहत मधेशी को मधेश में ही सीमित रखने की सोच से प्रभावित है ।



८। मधेश का हिमालय के साथ का सम्बन्ध आधुनिक नेपाल के ईतिहास से भी हजारों हजारों वर्ष पुराना है । तिब्बत और उससे भी परे मध्य एशिया में सिल्क रोड तक का ब्यापार मार्ग मधेश के लिए काठमांडू से होते हूए ही जाता था । काठमांडु उसी व्यापारिक मार्ग में पडने के कारण आर्थिक तथा सांस्कृतिक रुप से तीव्र गति में विकसित हुआ । मधेश हिमालय के पहाड , कंदरा, नदी तथा नाले तथा गुफाओं से अध्यात्मिक ज्ञान, चिन्तन तथा सन्यास के लिए भी हरेक काल में जुडा रहा । प्राचीन नेपाल, जो काठमांडौ उपत्यका में ं सीमित थी, उसकी संस्कृति मुल रुप से वैशाली , अवध, बंगाल, कर्नाटक से प्रभावित संस्कृति है । काठमांडू के देवालय , देवी देवता , काष्ठ मंडप मधेश की सस्कृति के द्दोतक हैं । मधेश की इस प्राचीनतम इतिहास, परम्परा और सम्बन्धों को निरन्तरता देने तथा उसको और व्यापक बनाने के लिए मधेशियों को बहुत ही गम्भीर और उत्तरदायी होना होगा ।ं

अन्त में मैं पिछले संविधान सभा में राज्य पुनः संरचना के प्रतिवेदन पर बहस के दौरान कही हुई बात को दुहराती हूँ । पिछले संविधान सभा में उक्त प्रतिवेदन को माओवादी, एमाले और मधेशवादी दल के प्रतिनिधियों ने पारित किया था। ंप्रतिवेदन की तस्वीर में दक्षिण दिशा में एक पतली सी पट्टी को अलग थलग मधेश प्रदेश के रुप मे रख दिया गया था, जब कि उपर जातीय पहचान के आधार पर बहुत सारे प्रदेश दिखे थे । मैने कहा था , इस तस्वीर को देख कर लगता है कि यदि कम्युनिष्ट पार्टियों के लक्ष्य और रास्ते में मधेश एक बाधा के रुप मे दिखेगा तो कम्यूनिष्ट पार्टियाँ मधेश से पल्ला झाडने के लिइ तैयार हैं । वे मधेश को स्वयं ही त्यागने के लिए तैयार दिखती हैं क्यों कि अब मधेश की कृषि पर नेपाल निर्भर नहीं है, जल विद्दुत के विकास से धन की अपार सम्भावनाएँ दिख रही हैं, रेमिटेंस से अर्थतंत्र चल रहा है , प्रशासन चलाने वाले आभिजात्य वर्ग के लिए पर्याप्त विदेशी सहयोग आ रहा है , सुरक्षा निकाय के लिए भारत और चीन के साथ हो रहा वैध अवैध व्यापार, वन जंगल पर्याप्त है , तो अब मधेश नेपाल के लिए आवश्यक क्यों रह गया ।
बाद में एमाले पार्टी ने निर्णय कर उस प्रतिवेदन को अस्वीकार कर दिया । कल तक मधेशी मूलतः किसान थे , लेकिन आज जब उनके संतान पढ लिख कर अपनी शिक्षा के बदौलत अन्य कार्य कर आगे बढना चाहते हैं तब अलगाव वादी धार का आगे आना जाने अन्जाने में शासक वर्ग के एजेंडा के पीछे दौडने जैसा मुझको लगता है । 

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