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गाँधी और राजनीति

 महात्मा गांधी के १५१वी जन्म जयन्ती के पूर्व संध्या के अवसर पर
 

गाँधी और राजनीति
 

आज पूरा विश्व गाँधी जी की  १५१ वीं गाँधी जयन्ती मना रहा है । महात्मा गाँधी के बारे में नाबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक आइंस्टाइन ने कहा था कि १००० वर्ष के बाद इस धरती के लोग विश्वास भी नही करेगे कि गाँधी जैसा कोई व्यक्ति कभी  इस धरती पर जन्मा भी था । १००० वर्ष तो बहुत दूर की बात है गाँधी के जन्म के १५० वर्षों के बाद ही राजनीति मे गांधी  मात्र एक आदर्श  की प्रतिमूत्र्ति  माने  जाते हैं और उनके पथ का अनुसरण करना अब असम्भव सा माना जाता है । गाँधी को मानने वाले कमोबेश सामाजिक अभियन्ता के रुप में ही सीमित होकर रह गये हैं । इसके लिए किसीको दोषी ठहराना भी उपयुक्त नहीं लगता है ।इसके कुछ कारण हो सकते हैं । एक कारण तो यह हो सकता है कि परिस्थितियाँ बहुत बदल चुकी हैं । दूसरा कारण यह हो सकता है कि  गाँधी के बाद के युग में जिस प्रकार की राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्थाका विकास हुआ है उसमें व्यक्ति कमजोर हो गया हो । गाँधी की विचारधारा एवं राजनीति  व्यक्ति के ऐसे अवधारणा के इर्द गिर्द केन्द्रित है जो आन्तरिक और वाह्य परिवेश में स्वतंत्र है। साथ ही अगर बाहर के परिवेश में व्यक्ति यदि अपने आपको स्वतंत्र नहीं भी पाता है तो अपने मन के संसार में वह स्वतंत्र है अर्थात वहाँ पर उसका अपना राज है और इसी लिए वह अपने बारे मे. कोई भी निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है ।यह उनकी राजनीति का आध्यात्मिक पक्ष है ।
 

लेकिन गाँधी समुदाय और संगठन की शक्ति को भी भली भाँति जानते थे । महात्मा गाँधी ने  भारतीय कांग्रेस पार्टी  जैसी संगठित संस्था को साथ लेकर भारत के स्वतंत्रता अभियान का नेतृत्व किया था ।महात्मा गाँधी ने भारत के स्वतंत्र होने के बाद भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस के विघटन का भी प्रस्ताव रखा था । गाँधी समझते थे कि जिस संगठन का विकास उनके स्वतंत्रता अभियान के साथ साथ हुआ था , वह संगठन  शासन करने के लिए उपयुक्त नहीं भी हो सकता है ।  लेकिन नेहरु और उनके पक्षधर कांग्ेस के विघटन करने के बारे में उस समय सहमत नहीं हुए । यह भी इतिहास का एक तथ्य है कि भारतीय कांग्रेस के द्वारा ही देश में आपात्काल की घोषणा हुई थी और तब जय प्रकाश नारायण जैसे लोकनायक ने सम्पूर्ण क्रांति का नारा देकर पूरे देश को आन्दोलित किया और आपातकालीन व्यवस्था ज्यादा दिन नहीं टिक पाई । जय प्रकाश नारायण शुरु में माक्र्सवाद से प्रभावित थे लेकिन बाद में वे गाँधी जी के सर्वोदय सिद्धान्त के अनुयायी हो गये ।
 

गाँधी और जेपी की राजनीति ने लागों को विश्वास दिलाया कि जनता राजनीति पर नियन्त्रण कर सकती है लेकिन आज वह विश्वास कमजोर हो गया है । आज मनुष्य पर परिस्थितियाँ हावी हो गयी हैं । मनुष्य सार्वजनिक जीवन में अपने आपको शक्तिहीन महसूस करने लगा है । लोकतंत्र में  जनता अपने प्रतिनिधियों को अपने मत से निर्वाचित तो करती है लेकिन राजनीति जनता की राजनीति नहीं रही है । वैसे भी राजनीति को सामान्य अर्थो में राज करने वालों की नीति मानी जाती है । अर्थात राजनीति शब्द में अब भी दो शब्दों का अर्थ नीहित है, राज करने वाले और वे जिन पर राज किया जाता है ।  श्री  जय प्रकाश नारायण ने जनता की शक्ति को राजनीति के क्षेत्र में फिर से स्थापित करने के लिए लोकनीति शब्द को प्रचलन में लाया । इसीलिए उन्होंने लोकनायक कीउपाधि भी जनता से पायी थी ।
गाँधी ने भारत की आजादी का ताना बाना बुना था और मात्र एक लाठी का सहारा लेकर लाखौं लाख भारतीयों को साथ लेकर स्वतंत्रता के लिए चल पडे थे ।  लाखौ. लाख भारतवासी उनके साथ चलने के लिए और मरने के लिए तैयार थे ।  गांधी की ताकत सिर्फ लाठी नहीं थी । गाँधी की ताकत मनुष्य के बारे में उनकी चितन थी । गांधी की प्रयोग विधि उस प्रत्येक प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता पर आधारित थी जो गुलाम भारत में भी आन्तरिक रुप से स्वतंत्र ढंग से सोचने में सक्षम था, विवेकी था और निर्भय था । गाँधी की ताकत सार्वभौम सत्ता सम्पन्न वह प्रत्येक व्यक्ति था जो तार्किक था और किसी भी बात पर सहमत होने के पहले अपने चिंतन मनन की कसौटी पर उसकी जाच ओर परख करता था और जो अपने निर्णयों को लेने के लिए स्वतंत्र था । यह प्रभाव भागवद् गीता का माना जा सकता है । उन्होनै सभी धर्मो का गहरा अध्ययन किया था । गाँधी आत्म चिंतन और आत्मा की शक्ति पर विश्वास करत थे । महात्मा गाँधी रुसी लेखक टाल्सटाय से बहुत प्रभावित थे । टाल्सटाय ने अपने लेखन में आत्मा की शक्ति और किसी दैविक शक्ति के साथ मानवीय आत्मा के सम्बन्ध को अपने कृति में उजागर किया था ।  महात्मा गाँधी की सामजिक और आर्थिक चिंतन पर  जान रस्किन की किताब बहुत गहरा प्रभाव पडा था । जान रस्किन ने अच्छे जीवन के लिए प्रकृति और सत्य के साथ रहना , दोनों को आवश्यक बताया था । उनकी किताब लास्ट अनटू दिस लास्ट का  गाँधी जी पर गहरा प्रभाव पडा था ।  वे राजनीति में  इसलिए सफल हुए क्यों कि वे बहुत सारी ज्ञान की धाराओ ं का अपने चिंतन में संयोजन करने में सफल रहे थे । धर्म और नैतिकता में भी उनका गहरा विश्वास था लेकिन वे सभी धर्मों का सम्मान करते थे ।
 

आज गाँधी जी के समय जैसी जैसी  परिस्थितियाँ विद्दमान नहीं हैं । मनुष्य जिन परिस्थितियों मे जी रहा है ,उन परिस्थितियों पर  उसका वश  नहीं है । वह राज्यसत्ता, तकनीकी तथा नीरीह नागरिक बनते जा रहा है । विकासशील और गरीब देशों की सरकारे भी नीरीह होते जा रही हैं और सरकारें जनता की सेवक नही रहकर शासक बनते जा रही हैं । मनुष्य विरोध करने वाला  एक प्राणी बन कर रह गया है। उसपर शासन करने वाले उससे बहुत दूर बैठे हैं और उसकी आवाज उन तक नहीं  पहुुँच रही है ।  न्याय बहुत दूर की बात हो गयी है ।  निष्पक्षता के लिये न्यामूत्र्तियों को सबसे उपर रखा गया है लेकिन वे भी जनता के विश्वास पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं । राजनीतिकीकरण से वे अछूते नहीं हैं । पूजीवाद और समाजवाद के शिकंजे में विश्व की अर्थ राजनीति विभाजित हो जकड चुकी है । धर्म के आधार पर  राजनीति से विश्व के बहुत सारे देश की सामान्य जनता आक्रांत है ।  वातावरणीय हस के कारण धरती स्वयं और धरती पर रहे जीवन संकट मे हैं । परमाण्ुा अस्त्र से भी  धरती तथा जीवन असुरक्षित हैं ।  
 

यह अवस्था इसलिए आई है क्योंकि जीवन तथा शांति के आधारों की  सबसे ज्यादा जरुरत जिस आम जनता को है  वे आधार उनसे छिन  गये हैं । दूसरा कारण यह है कि राजनीति नैतिकता से बहुत दूर चली गयी है । गाँधी के लिए राजनीति एक आध्यात्मिक प्रयोग था और इसमें वे सफल रहे क्यों कि सत्य, अहिंसा तथा नैतिकता उनकी राजनीति के तीन प्रमुख आधार थे ।  गाँधी से सीखने वाली सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अत्यन्त विषम परिस्थितियों में भी अपने लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सकती है और परिस्थितियो को अपने वश में लाने के लिए जनता के नाम मे नही बल्कि सत्य और निष्ठा के साथ जनता की राजनीति करना आवश्यक है ।
 

सरिता गिरी
१ अक्टूबर २०२०, अषोझ १५, २०७७

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